खुदा की बदलती........ सियासत
खुदा की सियासत भी गड़बड़ाई हुई है,
जँहा पड़ना था सुखा वंहा बाढ़ आई हुई है,
खुदा का वजीर शायद सरकारी मुलाजिम हुआ है,
तभी मौसमों में हेर फेर हुआ है,
एक टुकड़ा बादल का पानी लिए घूमता चला जाता है,
रिश्वत नहीं दी शायद तभी बाढ़ पर बरस पाता है,
वजीर की जोरू की ख्वाहिशें बढ़ गयी हैं,
तभी लगता है आरक्षण की मांग बढ़ गयी है,
ख्वाहिशें पूरी करने में वजीर मगशूल हो गए हैं,
सियासत के फ़र्ज़ निभाने तभी फ़िज़ूल हो गए हैं,
जन्म देने का डिपार्टमेंट भी चरमरा गया है,
एक ही बदन में दो सर दो हाथ पांव लगा रहा है,
खुदा शायद खुद हैराँ है ये क्या हो रहा है,
मेरे बनाये इंसा की खामिया मेरी सियासत में हुई है
जाने शैतान की सियासत क्यों यंहा शामिल हुई है