एह्साश...... पाषाण के
इस पाषाण का उस धरा को सलाम है,
जिसकी मिटटी मस्तक रही सदा,
जिसने तराशा मंदर के लिए उसका इंसान नाम है,
पर उसने पाया नहीं खुदा,
मुझे संवारा गया अपनी सुविधाओं के लिए,
मैं रखता गया खुद पर खुद को,
आज देखता हूँ अट्टालिकाओं में मेरा नाम है,
मेरे एहसासों को छूता है या तो बचपन,
या वो जो वतन की मिटटी के लिए खुद को करता कुर्बान है,
बाकियों को देखता हूँ लगता है रौंदते से चलते हैं सब,
मेरा वजूद रात में ही कुछ वक़्त ले पाता विराम है ,
एै धरा तूने भी तो सहे हैं जुर्म इंसान के,
इन्तिहाँ पर इसकी तेरा भीषण आक्रोश सहता इंसान है,
सब कुछ जान कर भी ये इंसान रहता अनजान है,
सोचता हूँ खुदा ने भी ये कैसा बना रक्खा नादान है