जीने का एक अंदाज़.... ये भी
गम से घबराता तो मैं भी रहा हूँ,
नाउम्मीदी में उम्मीद लिए जी ही रहा हूँ,
टूटना तो पत्थरों का नसीब है ही शायद,
तराश दे कोई इस चाह में जहर भी पी रहा हूँ.
नहीं बनना मुझे किसी मंदर की मूरत,
मैं फकत रास्तों को मुकम्मल सी रहा हूँ,
यूँ तो ज़िन्दगी के तजुर्बों का हासिल गम ही रहा है,
अब गम ही को मीठी ख़ुशी सा जी रहा हूँ